सोवा रिग्-पा, तिब्बती वैद्यक-शास्त्र विभाग की स्थापना के. उ. ति. शि. सं. में 1993 में निम्नलिखित उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए की गयी ।
तिब्बती चिकित्सा विद्या की अभिवृद्धि करना तथा समाज के बेहतर स्वास्थ्य की देखभाल में योगदान करना ।
निर्वासित तिब्बती समुदाय, हिमालयीय लोग, तथा तिब्बती चिकित्सा विद्या में रुचि रखने वाले विदेशी विद्वान् इन सबके लिए तिब्बती वैद्यक-शास्त्र के अध्ययन का अवसर प्राप्त उपलब्ध कराना।
इस अद्वितीय वैद्यक-व्यवस्था को विकसित करने के लिए इस प्राचीन तिब्बती चिकित्सा विद्या के क्षेत्र में और अधिक अनुसंधान को कार्यरत करना । सोवा रिग्-पा या चिकित्सा विद्या का तिब्बत में लंबा इतिहास रहा है । यह तिब्बत की स्थानीय वैद्यक व्यवस्था है । सोवा रिग्-पा पर धर्म, संस्कृति, जीवन-पद्धति तथा वातावरण का भारी प्रभाव रहा है । वह मुख्यतः बोन धर्म तथा बौद्ध धर्म पर आधारित है।
सदियों पुरानी यह पारंपरिक वैद्यक व्यवस्था व्याधियों के निदान के लिए मूत्र, नाड़ी, जिक्, तथा चक्षु आदि की परीक्षा का संमिश्र दृष्टिकोण अपनाती हैं । नाड़ी परीक्षा के आधार पर तीन आधारभूत ऊर्जाओं के संतुलन की तथा विभिन्न अवयवों की स्थिति की जाँच करना संभव होता है । इस परंपरा में दवाइयों की निर्मिति प्राकृतिक घटकों से, जैसे कि खनिज पदार्थों तथा वनस्पतियों से की जाती है । बीमारियों के इलाज के लिए मालिश, सूचिवेध तथा जैसी शारीरिक चिकित्सा-पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है ।
सोवा-रिग्-पा वैद्यक व्यवस्था भारतीय, फारसी, यूनानी तथा स्थानीय तिब्बती और चीनी वैद्यक व्यवस्थाओं का समन्वय है । उसका बड़ी मात्रा में व्यवसाय तिब्बत में, भारत में, नेपाल में, भूटान में, लद्दाख में, भारतीय हिमालयीन प्रदेशों में, चीन में, मंगोलिया में और साथ ही साथ, हाल ही में यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में भी किया जा रहा है ।
तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रवेश से पहले, बोन धर्म के संस्थापक शेन्-रब् मिवो चे ने भुम-शी नामक प्रमुख वैद्यक ग्रंथ पढाया - जो भारत के कुछ प्रदेशों में, तिब्बत तथा नेपाल में भी पढ़ाया पढ़ा जाता है । विज्ञान के 12 क्षेत्रों में फेन्-शेष् मेन्-चेद् को चिकित्साशास्त्र का मूलभूत ग्रंथ माना गया था ।
तिब्बत में बौद्ध धर्म के आगमन के बाद इस वैद्यक-व्यवस्था ने पारम्परिक बौद्ध श्रद्धाओं को धारण कर लिया – जैसे कि सारी बीमारियाँ मन के तीन विषों” के परिणाम हैः अज्ञान, राग और द्वेष । कोई भी व्याधि वात, पित्त, कफ इन तीन ऊर्जाओं के असंतुलन का परिणाम होती है । वात ऊर्जा विद्यमान होती है – तंत्रिका-व्यवस्था में, ऐंद्रिय व्यापारों में, खसन, पाचन, रक्ताभिसरण आदि में । वात ऊर्जा मानसिक संतोष तथा तनाव का भी नियमन करती है । पित्त ऊर्जा शरीर की उष्णता, यकृत का कार्य तथा रक्ताभिसरण को नियंत्रित करती है । कफ ऊर्जा शरीर की शीत ऊर्जा का नियमन करती है । वह शरीर के द्रवों, उत्तेजक रसों तथा लसिका व्यवस्था का नियमन करती है । ये तीनों ऊर्जाएँ भावनाओं तथा मूलभूत अभिवृत्तियों का परिणाम हैं और ये भावनाएँ तथा अभिवृत्तियाँ मूल अज्ञान द्वारा संस्कारित हुआ करती है । जब ये मूलभूत ऊर्जाएँ भावनाओं द्वारा, ऋतुपरिवर्तन द्वारा, आहार–विहार द्वारा असंतुलित हो जाती हैं, तब वे कई सारी अलग–अलग बीमारियों को उत्पन्न करती है ।
इतिहास
बोन वैद्यक परम्परा के पश्चात्, भारत के दो वैद्य विजय-गजे तथा बिमल-गजे की चौथी शती में तिब्बत भेंट के परिणाम-स्वरूप तिब्बत के 28वें राजा ल्हातो थोरी ञेन्छेन् (374-492) के शासन काल में एक नई वैद्यक परम्परा का सूत्रपात हुआ । राजा ने उन दोनों को अपने दरबार में आमंत्रित किया । विजय-गजे का ल्हाचम् येद्क्यी रोल्-चा के साथ विवाह हुआ था । उनको एक पुत्र हुआ । उसका नाम था । दुङ्-गी थोर्-चोग-चेन् । आगे चलकर वह सर्वप्रथम तिब्बती चिकित्सक बना । तथापि उसका चिकित्सा-कार्य केवल राजा के दरबार तक ही सीमित था । इस शासन काल में महान् सोङ्छ़ेन् ग्याम्-पो (617-650) तथा ठासोङ् द्-यू-छेन् (742 ईसवी) ने धर्मराज, हशङ् महा क्यिंता शांतिगर्भ, गुहेवज्र, ताङ्-सुम् - गङ्-वा, हशङ् बल्, हङ्ति-पत, हल-शांति, सेङ्-दो वोंद्-चेन् खोल मा-रु-छे, धर्मशील आदि कई विदेशी चिकित्सकों को भारत, चीन, पर्शिया, द्रुगु, दोल्-पो तथा नेपाल से आमंत्रित किया । अंत में, तिब्बती वैद्यक पर प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी का सम्ये मठ में 728 में आयोजन हुआ । इस गोष्ठी में युथोक् योन्तेन गोन्-पा-1, द्रङ्-ती ग्याल्-न्ये- खरफुक् तथा कई और सुप्रसिद्ध तिब्बती चिकित्सकों ने हिस्सा लिया ।
महान् रिन्चेन् सङ्-पो (958-1056) ने वाग्भट के ‘अष्टांग-हृदयम्’ का तिब्बती में अनुवाद किया ।
योथोग् योन्तेन् गोन्-पो-1 कोन्-पो गये और वहाँ पर ता-ना- दुग् वैद्यकीय महाविद्यालय नामक प्रथम वैद्यक संस्था की स्थापना की । इसे तिब्बत का सर्वप्रथम वैद्यकीय विद्यालय माना जाता है । मेन्-पा-दुस्-रा-वा, का-चु-पा, रब्-नाम्स्-पा तथा भुम्-रा-पा जैसी विभिन्न उपाधियाँ प्रदान करने की परंपरा भी इस काल-खंड में स्थापित की गई । कई विद्वानों की मान्यता और श्रद्धा है कि वे ही ग्युद्-शी के बुनियादी शिल्पकार थे । युथोग् योन्तेन गोन्-पो-2 (1126-1202) ने युथोक्-1 (8वीं शती) के ग्रंथ के पांडु-लेख पर आधारित ‘ग्युद-शी’ की रचना की । यह अंत में समान तिब्बती चिकित्सकों के लिए प्रमुख ग्रंथ बन गया, अपवाद था भारत, तिब्बत तथा नेपाल के कतिपय भुम-शी व्यवसायिकों का । अंततः 14वीं शताब्दी में कुछ नई परम्पराएँ उभरी । 17वीं शती में पंचम दलाई लामा के शासन-कल में सोरिग्-द्रोफेन्-लिंग्, द्राङ्सोङ्-दुस्पइ-लिङ्, ल्हवङ्-चोक् सम्प्रदाय तथा सङ्-फु-ञिमा-थङ् सम्प्रदाय की स्थापना उनके सिंहासनस्थ होने के बाद की गयी । राज-प्रतिनिधि संग्ये ग्याछ़ो (1653-1705) ने पंचम दलाई लामा की इच्छानुसार वैद्यक-व्यवसाय तथा सिद्धान्तों के मानकीकरण की चेष्टा की तथा पोताला पैलेस के पास लोह पर्वत पर चोगपोरी वैद्यकीय महाविद्यालय की स्थापना की । उन्होंने कई वैद्यकीय ग्रंथों की रचना की इनमें सम्मलित हैं – ग्युद-शी पर लिखी प्रसिद्ध टीका – ‘वैदुर-ञोन्-पो’ तथा 79 वैद्यकीय चित्रों को तैयार करवाया । 13वें दलाई लामा के कार्य-काल में (1895-1933) मेन्-छ़ी-खङ् नाम के एक नये वैद्यकीय तथा ज्योतिष महाविद्यालय की स्थापना की गयी – ल्हासा में 1916 में । आज यह संस्था तिब्बत तथा चीन की वैद्यकीय संस्थाओं में अग्रणी है। वर्तमान में बहुत सारी सोवा-रिग्-पा वैद्यकीय संस्थाएँ आधुनिक तिब्बत
अनुसंधान प्रकल्प
भोट वनस्पति मिश्रणों का उदर-विकृति, यकृत-विकृति तथा यकृत की बिमारियों पर असर । मधुमेह पर अनुसंधान ।
स्त्री आरोग्य, डॉ. हेस्ली आर. जैफे, यूएसए तथा डॉ. छ़ेरिङ् योदोन, बीटीएम्एस् के साथ संयुक्त रूप से ।
ग्युद्-शी पर तुलनात्मक अध्ययन ।
औषधि मानकीकरण (तिब्बती औषधि) ।
ई डी एम् जी प्रकल्प : तवाङ्, अरुणाचल प्रदेश आदि हिमालयीय प्रदेशों में समुद्र-तल से 16000 फुट ऊँचाई पर 5.47 एकड़ भूमि पर पाई जानेवाली औषधि जड़ी-बूटियों का संरक्षण करने का प्रकल्प ।
शैक्षणिक सम्बन्ध
इस विभाग के अध्यापकवृंद एमरी विश्वविद्यालय यूएसए, तस्मानिया विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया, स्मिथ कॉलेज, यूएसए, वँकाँग डिजिटल विश्वविद्यालय, दक्षिण कोरिया आदि के साथ विनिमय कार्यक्रमों तथा व्याख्यान-मालिकाओं में विनियुक्त है ।
प्राध्यापक-वृंद
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Professor Lobsang Tenzin |
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Professor |
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Dr. Tashi Dawa |
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Assistant Professor(Acting HOD) |
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Dr. Dorjee Damdul |
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Associate Professor |
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Dr. Shuchita Sharma |
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Assistant Professor |
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Dr. A. K. Rai |
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Guest Lecturer |
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Shri V.K. Patil |
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Lab. Tech. (Contractual) |
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Name |
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Shri Tenzin Gelek |
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Designation |
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T.A. (Contractual) |
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