बोन सम्प्रदाय शास्त्र विभाग

इतिहास

तोन् पा शेन्-रब मिवोचे और बोन का इतिहास : तिब्बत के मूल-निवासियों की पूर्व-बौद्ध अति-प्राचीन धार्मिक परंपरा है बोन । आज भी तिब्बत में तथा भारत में कई तिब्बती लोग इस धर्म का आचरण करते है । इस मानवीय जगत् में बोन् धर्म के संस्थापक हैं तोन्-पा शेन्-रब मिवोचे ।

पारंपरिक जीवन-वृत्तांत के अनुसार, पूर्वयुग में शेन्-रब को साल्वा कहा जाता था और उन्होंने बोन सिद्धांतों का अध्ययन अपने दो भाई डाग्-पा और शे-पा के साथ सिद-पा येसङ् स्वर्ग-लोक में बोन महात्मा बुम्त्री लोगी चेसन के मार्गदर्शन में किया । अपना अध्ययन समाप्त करने के बाद तीनों भाइयों ने करुणा के देवता, शेनल्हा ओकर से भेंट की, यह पूछने के लिए कि वे लोग सजीव प्राणियों के दुःख कैसे हल्का कर सकेंगे । शेनल्हा ओकर ने उन्हें सलाह दी कि उत्तरोत्तर तीन कल्पों में मानवजाति के मार्ग-दर्शक बनें । डाग्-पा ने गत् कल्प में देशना दी; साल्वा ने तोन्-पा शेन्-रब मिवोचे का रूप धारण किया और वे वर्तमान युग के शास्ता तथा मार्गदर्शक बन गये । सबसे छोटे भाई शेपा अगले कल्प में देशना देने के लिए अविर्भूत होंगे ।

तोन्-पा शेन्-रब स्वर्ग-लोक से उतरकर मेरु पर्वत के तल-भाग के पास आविर्भूत हुए, अपने दो सबसे निकटवर्ती शिष्यों-मालो तथा युलो के साथ । तत्पश्चात् उन्होंने राजा ग्यास टोकर और रानी जंगा रिंगम के पुत्र के रूप में एक राजकुमार का जन्म लिया; इनका जन्म युंग्ड्रुंग गुत्सेग के दक्षिण में स्थित फूलों से भरे एक प्रकाशमान उद्यान में पहले काष्ठ पुरुष मूषक वर्ष (1857 B.C.) के पहले महीने के आठवें दिन सूर्योदय के समय हुआ । कच्ची आयु में ही उनका विवाह हो गया और उनके बच्चे भी हुए । 31 वर्ष की आयु में उन्होंने ऐहिक जीवन का परित्याग कर तपस्या करना तथा बोन सिद्धांत की देशना देना शुरू किया । बोन धर्म का प्रचार करने के उनके प्रयासों में जीवन भर ख्याब्-पा लग्रिङ् ने बाधाएँ डाली तथा शेन्-रब् के कार्य को नष्ट करने के लिए वह लड़ता रहा; अंत में उसका हृदय- परिवर्तन हो गया, और वह शेन्-रब का शिष्य बन गया । एक बार ख्याब्-पा ने शेन्-रब के घोड़े चुराए और शेन्-रब् ने झ्यांग झुंग के रास्ते दक्षिणी तिब्बत तक उसका पीछा किया । कॉङ्-पो पर्वत को लाँघकर शेनरब ने तिब्बत में प्रवेश किया ।

यह शेन्-रब् की तिब्बत को एकमेव भेंट थी । उस समय तिब्बती लोग यज्ञ किया करते थे । स्थानिक राक्षसों को शेन्-रब् ने शांत किया और आहुति देकर यजन करने के विषय पर निर्देश दिये ।

तोन्पा शेन्-रब् के देहांत के 1800 वर्ष बाद उनके वाचिक प्रकटीकरण के रूप में मुचो डेम्-डुग स्वर्ग-लोक से ओल्मो लुङ् रिङ् में अवतरित हुए । मुचो डेम्-डुग ने बोन धर्मचक प्रवर्तन किया, ताकि तोन्पा शेन्-रब की सभी देशनाओं का संगठन तथा वर्गीकरण हो सके । उन्होंने कई छात्रों को पढ़ाया । उनमें से सबसे अधिक जाने-माने छात्रों को छः महान् विद्वान या छः विश्व-भूषण कहा जाता है । उन्होंने बोन देशनाओं का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया तथा उन्हें अपनी-अपनी जन्म-भूमियों में प्रसारित किया । ये छः आचार्य थे । मुछ़ा ताहे, ठितोक पारछ़ा, तगझिग के हुलि परयाग, भारत के ल्हाडाग् ङाग्-डो, चीन के लेग्-तङ् माङ्-पोठ, तथा ट्रॉम के सेरटोक छेज़म् । आगे चलकर 11वीं शती में तेन्त्रोन चेपो नामक महान् कोष-हर्त्ता (शेन् चेन् लुगा, 969-1035 ईसवी नाम से भी जाने गए) तथा अन्य लोगों ने बोन के इन गुप्त ख़ज़ानों को पुनः हस्तगत किया । शेन्-चेन् लुगा तथा अनेक (ड्रु जे युड्ड्रुङ, झु ये लेग्पो तथा पेटन पालच्रोक् झाङ्-पो इन तीनों को छोड़कर) शिष्यों को उनके वारिस समझा जाता है । पहले हैं ड्रु जे युङ्-ड्रुङ् लाम, जिन्होंने येरु वेन्सा खा मठ की छ़ांग प्रान्त में 1012 ईसवी में स्थापना की । थेरु वेन्सा खा बोन शिक्षा का केंद्र बना । दुर्भाग्य से येरु वेन्साखा मठ बाढ़ तथा भूस्खलन के कारण उद्धवस्त हो गया । सारे जीवमात्रों के कल्याण हेतु बोन परंपराएँ जीवित रखने के लिए त्रामेद, शेरब् ग्याल्छेन् (1356-1415) सन् 1405 में टशी मेन्री लिङ् नामक एक नये मठ की छ़ांग प्रांत के टोब् ग्याल् गाँव में स्थापना की गयी । उस समय से मेन्री मठ सभी बोन्-पो लोगों का मातृ-मठ बन गया है ।

जब 1959 में चीन ने तिब्बत को जोड़ लिया, तब कई बोन्-पो भिक्षु तथा गृहस्थ निर्वासित होकर भारत तथा नेपाल आ गए । 1967 में महामहिम योङ् झिन् तेन्झिन नम्-डक् रिन्पोचे ने हिमाचल प्रदेश में नव टोप् ग्याल बोन्-पो बस्ती, दोलंजी की स्थापना की और परम पावन 33वें मेन्री ट्रिझिन् रिन्पोचे ने दोलंजी में बोन्-पो मठ बनाया । 1978 में बोन खंडन-मंडन संप्रदाय (जो येरुबेन्सा खा लाथा मेन्री का परिपूर्ण पारंपरिक प्रशिक्षण प्रदान करता है ) की मेन्री मठ में स्थापना की । परमपावन 33वें मेन्री ट्रिझ़िन् युवा भिक्षुओं की ज़रूरतों का ख़याल रखते हैं और मेन्री के इस खंडन-मंडन विद्यालय से ‘गेशे’ उपाधि लेकर भिक्षु स्नातक हो जाते है ।

केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान में बोन्-पो विभाग 1990 में परम पावन दलाई लामा के मार्गदर्शन तथा निरीक्षण में स्थापित हुआ, ताकि तिब्बत के स्थानिक धर्म को जीवित रखा जा सके । शुरू में इस विभाग का आरंभ गेशे गोरिंग तेन्झ़िन नाम के एक ही अध्यापक तथा चार छात्रो-द्रुग्से तेन्झ़िन, कलसङ् नोरबू, छ़ेवङ् ग्याल्यो और छ़ेवङ् से किया । सद्यः स्थिति में यहाँ पर लगभग 35 छात्र तथा पाँच अध्यापक बोन्-पो विभाग में हैं तथा कई छात्र यहाँ से स्नातक होकर समाज के अलग-अलग सत्रों में समाज-कल्याण-कार्य में लगे हुए है ।

अनुसंधान प्रकल्प

विद्वत सहायता - यह पीएच.डी. छात्रों को किस प्रकार सहायता प्रदान करती है

  1. आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण ‘के. उ. ति. शि. सं.’ के छात्र तथा प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण अन्य उम्मीदवारों को एम्. फिल्. शिक्षण-क्रम प्रदान किया जाता है, यह शिक्षण-क्रम 6 माह का होता है । एम्. फिल्. उत्तीर्ण छात्रों को 3 वर्ष के पीएच्. डी. शिक्षण-क्रम के लिए सीधा प्रवेश दिया जाता है । वर्तमान समय में इस संप्रदाय से एक छात्र पीएच्. डी. कर रहा है ।

  2. बाहर के छात्र (विदेशी) के. उ. ति. शि. सं. विदेशों से छात्रों को अनियत अनुसंधाता के रूप में ग्रहण करता है, अलग-अलग आदान-प्रदान कार्यक्रमों के अंतर्गत इंडियन काउन्सिल ऑफ कल्चरल रिलिजन्स तथा युनिवर्सिटी ग्रांट्स् कमिशन के ज़रिये विदेशी छात्रों को ग्रहण करता है ।

उद्देश्य

सुव्यवस्थित तथा आधुनिक तरीके से विभाग के छात्रों को बोन धर्म की परंपरा का ज्ञान प्रदान करना ताकि युंग्ड्रुंग सबसे प्राचीन तिब्बती बोन धर्म तथा परंपरा को जीवित रखकर उसका प्रसार किया जा सके । इस बोन संप्रदाय विभाग के उद्देश्यों का केंद्र है ।

प्राध्यापक-वृंद


Name : Ven. C.G.S. Phuntsok Nyima    
Designation : Associate Professor
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Name : Ven. G.T. Chogden    
Designation : Associate Professor
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Name : Ven. G.L.L. Wangchuk    
Designation : Reader(HOD)
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Name : Ven. M.T. Namdak Tsukphud    
Designation : Guest Lecturer
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