साक्य सम्प्रदाय विभाग
साक्य सम्प्रदाय विभाग की स्थापना 1967 में मार्ग और फल की नालंदा परंपरा से चलती
आई मूल्यवान् परम्पराओं को जीवित रखकर उनका प्रसार करने के उद्देश्य से हुई ।
इतिहास
इस सम्प्रदाय के संस्थापक थे महान् आचार्य खोन् कोन्-चोग्
ग्याल्-पो (1034ईसवी) । मार्ग तथा फल की देशनाओं को उन्होंने महान् अनुवादक
ड्रोक्मी साक्य येशे (992-1074) से प्राप्त किया । जो परम्परा नालंदा
विश्वविद्यालय के महंत आचार्य धर्मपाल से संक्रमित हुई थी । सैद्धांतिक दृष्टि
से, इस परम्परा के स्रोत भारतीय योगी विरु-पा और फिर गयाधर है । ड्रोक्-मी ने
भारत की यात्रा की, वहाँ पर उन्होंने कालचक्र, मार्ग और फल, आदि की देशना कई
भारतीय आचार्यों से प्राप्त की । वे तिब्बत लौटे और इस परम्परा का अध्यापन शुरू
किया । खोन् कोन्-चोक् ग्याल्-पो ने मध्य तिब्बत के छ़ाङ् प्रांत में शुभ्र स्थान
की चोटी पर एक मठ स्थापित किया । इसी कारण उसे साक्य कहा गया और उस सम्प्रदाय को
तिब्बत में साक्य सम्प्रदाय इस नाम से जाना जाने लगा।
इस सम्प्रदाय की विषय-वस्तु है-भारतीय आचार्य विरूप द्वारा
वर्णित तांत्रिक सिद्धांत तथा साधना व्यवस्था की साधना करना । उन्होंने सभी बौद्ध
तंत्रों के सार-भाव का साधारण रूप से तथा हेवज्र तंत्र का विशेष रूप से सूत्रपात
किया । वह सूत्र तथा तंत्र दोनों देशनाओं के समग्र मार्ग तथा फल का समन्वय है ।
मार्ग तथा फल में अभिव्यक्त दार्शनिक दृष्टिकोण है संसार तथा निर्वाण में अपृथकता
। इस दृष्टिकोण के अनुसार संसार तथा निर्वाण दोनों की जड़ है मन। जब वह मलिन हो
जाता है तब संसार का रूप धारण कर लेता है और जब मलों से मुक्त हो जाता है तब वही
निर्वाण बन जाता है । इसलिए वास्तव में व्यक्ति को चाहिए कि वह ध्यान के माध्यम
से इन दोनों की अपृथकता का साक्षात्कार कर लें ।
इस सम्प्रदाय के पाँच महान आचार्य थे- साचेन् ञिङ्पो
(1092-1158), सोन छ़ेमो (1142-1182), डाक्-पा ग्याल् छ़ेन् (1147-1216), साक्य
पंडित (1182-1251), तथा चोग्याल फक्-पा (1235-1280) । मुख्य सम्प्रदाय के भीतर के
उप-सम्प्रदाय हैं – ङोर तथा छार परम्पराएँ । ङोर्-चेन् कुंगा झाङ्-पो (1382-1457)
तथा कोन्-चोक् ल्हुन्-ड्रुप, थार्त्छे नम्-खा पेल्-संग तथा ड्रुब्- खङ् पाल्-डेन्
धोन्-डुप जैसे अनुक्रमिक आचार्यों को ङोर परम्परा धारक माना जाता है । छ़ार-चेन्
लोसेला ग्याछो (1502-56) के नेतृत्व में चला परम्परा को छ़ार् परम्परा कहा जाता
है । साक्य-पा की प्रमुख देशना तथा साधना को लाम्-द्रे-मार्ग तथा फल कहा जाता है
।
प्राध्यापक -वृंद:-
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Dr. Tashi Tsering (S) |
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Associate Professor |
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Ven. Ngawang Lodoe |
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Ven. Dakpa Senge |
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Ven. Ngawang Zodpa |
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ञङ्मा सम्प्रदाय विभाग
ञिङ्मा सम्प्रदाय विभाग की स्थापना 1967 में उस समय के केन्द्रीय उच्च तिब्बती
शिक्षा संस्थान में हुई; यह संस्था उस समय संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की एक
विशेष शाखा के रूप में कार्य कर रही थी । ञिङ्-मा-पा संप्रदाय महान् भारतीय आचार्य
शांतरक्षित तथा पद्मसंभव द्वारा स्थापित किया हुआ तिब्बती बौद्ध धर्म का सबसे
प्राचीन संप्रदाय था ।
इतिहास
राजा ठिसोङ् ड्यूछ़ेन ने 810 ईसवी में भारतीय आचार्य पद्मसंभव को तिब्बत बुलाया
। उन्होंने कई वज्रयान ग्रंथों का अनुवाद किया और गुप्त मंत्र का धर्मचक्रप्रवर्तन
सम्ये मठ में किया। उन्होंने गोपनीय ढंग से कई वज्रयान देशनाओं की अपने विशेष शिष्यों
को शिक्षा दी – उनमें स्वयं राजा तथा अन्य 25 अनुयायी शामिल थे । क्रमशः यह संक्रमण
गुप्त मंत्र संप्रदाय ञिङ्मा-पा नाम से विकसित हुआ । उन्होंने झॉग्-चेन देशना का
सूत्रपात किया, जिस देशना में मन के स्वरूप को पहचाना गया है, खासकर विशुद्ध
जागरूकता नामक उसके मूलभूत पहलू को । यह महान् परम्परा गुरु पद्मसंभव, विमलकीर्ति
तथा महान् अनुवादक वैरोचन के माध्यम से विकसित हुई । आगे चलकर महान आचार्य लोन्-चेन्
रब्-जम्-पा ने झोग्-चेन् देशना को एक समावेशक दार्शनिक तथा चिंतनात्मक व्यवस्था के
रूप में व्यवस्था-बद्ध किया । इन देशनाओं का विकास सदियों होता रहा, और तिब्बत के
42वें राजा त्रिराल्-पा-चेन् का इस धर्म के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान रहा।
उन्होंने भिक्षु-संघों से किये जानेवाले व्यवहार को लेकर साधारणजनों के लिए कई
आचार-सिद्धांत बनाए, जैसा कि एक परिवार को कितने भिक्षुओं की देखभाल करनी चाहिए आदि।
उन्होंने देशनाओं के अनुवाद के बारे में नये नियम बनाए तथा कतिपय नये मठ स्थापित
किये । ङग्युर या पुरातन अनुवाद शिक्षाएँ, आचार्य शांतरक्षित, गुरु पद्मसंभव तथा
राजा ठिसोङ् ड्यूच़ेन् ने उनकी स्थापन करने के समय से, तीन अवस्थाओं से गुज़रीं ञाग्,
नुब्, तथा झुर युग जिन्हें क्रमवर्ती-पीढ़ियों ने एक-एक अवस्था में धारण किया ।
कोश-शोधकों ने गुप्त देशनाओं का फिर से पता लगाया; ये देशनाएँ स्वयं गुरु ने
सुरक्षित स्थानों पर भूमि गाड़ कर रखी थीं, ताकि उन्हें क्षति न पहुँचे और वे दूषित
न हो जाएँ । 17वीं तथा 18वीं शतियों के दौरान प्राचीन ञिमा-पा सम्प्रदाय धीरे-धीरे
छः अलग-अलग मठों में बँट गया । हर मठ की सैकडों शाखाएँ थीं। मिन् ड्रॉलिङ् तथा
दोजें-द्र-ग् जैसे मठ मध्य तिब्बत में स्थापित हुए । शेचेन् तथा झोग्-चेन् खाम या
पूर्व प्रांत के मध्य में स्थापित हुए और कथोग् तथा पत्युल डुपरी खाम के
दक्षिण-पूर्व भाग में स्थापित हुए । वर्तमान में इन मठों की पुनः स्थापना दक्षिण
भारत में मैसूर तथा उत्तर भारत में देहरादून, शिमला आदि स्थानों पर हुई । इस परम्परा
को लोङ्चेन् रब्-जम्-पा, रङ्झोम्, जिग्-मेद्-लिङ्-पा, जु मिफाम् आदि ने बनाया । नौ
यानों में समाविष्ट समग्र बुद्ध-देशना के दार्शनिक तथा तांत्रिक दोनों प्रकार के
अध्ययन का उत्तरदायित्व इस सम्प्रदाय ने स्वंय लिया । तीन भीतरी तंत्रों की
ध्यान-साधना पर इसका जोर है । झोग्-चेन्, महा-पारमिता इस देशना का तथा साधना-मार्ग
का केंद्रवर्ती विषय बना ।
प्राध्यापक -वृंद:-
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Ven. Dudjom Namgyal |
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Ven. Sonam Dorjee |
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Ven. Sonam Wangchen |
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Ven. Sanga Tenzin |
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गेलुग सम्प्रदाय विभाग
महान् भारतीय आचार्य अतिश से चली आई मूल्यवान् कदंप परंपरा को जीवित रखकर उसका
प्रसार करने हेतु 1967 में गेलुग सम्प्रदाय विभाग की स्थापना हुई ।
इतिहास
गेलुग सम्प्रदाय की स्थापना आचार्य जे. च़ोंखापा लोब्संग डाक्-पा
(1339-1419) ने की । वे एम्डो प्रांत के च़ोंखा इलाक़े में पैदा हुए थे । तीन
वर्ष की आयु में उन्हें चौथे कर्मा-पा ने दीक्षित किया और सात वर्ष की आयु में
उन्हें श्रामणेर शपथ दी गयी । च़ोंखा-पा ने लंबी यात्रा की और उस समय मौजूद सभी
तिब्बती संप्रदायों के तथा मुख्यतः कदंप आचार्यों के साथ अध्ययन किया । भारत की
विक्रमशिला के महान् आचार्य अतिश (982-1054) को 1039 में तिब्बत बुलाया गया और
उन्होंने सूत्र तथा तंत्र दोनों की देशना को सिखाया । उनकी देशना-परंपरा को आगे
खुतोन, ङोक् लोडेन् शेरब (1059-1109) तथा ड्रोमटोन्पा ग्यालवई जुंग्ने
(1005-1064) के ज़रिये संक्रमित किया गया इसी को कदंप परम्परा कहा जाता है ।
जे चोंखा-पा के कई शिष्य थे, जैसे कि ग्याल्त्सब धर्म रिन्-चेन्
(1364-1432), खेद्रुब गेलेग पेल्संग (1385-1438), ग्याल्स्वा गेन्डुम् ड्रुप
(1391-1474), जम्-यंग् चोजे टशी पाल्डेन (1379-1449), जमचेन् चोजे शाक्य येशे, जे
शेरब सिंगे तथा कुंगा धोंडुप (1354-1435) ये सबसे अधिक प्रसिद्ध शिष्य रहे है ।
चोंखा-पा ने 1409 में गादेन मठ की स्थापना की । फिर गेलुग-पा
सम्प्रदाय स्थापित हुआ । इस सम्प्रदाय का मूल नाम गादेन-पा था । मठ को दो
महाविद्यालयों में विभक्त किया गया शार्ल्सो तथा जङ्त्से । इस सम्प्रदाय के अन्य
मठ हैं – ड्रेपुङ्, सेरा, टशी ल्हुम्पो, ग्युतोद तथा ग्युमेर । उनके एक शिष्य जम्
यंग् चोजे टशी पाल्डेन ने ड्रेपुंग मठ की स्थापना 1416 में की । इस मठ की दो
शाखाएँ हैं – लोसेलिङ् और गोमङ् । चोंखा-पा के दूसरे एक शिष्य जमचेन् चोजे साक्य
येशे ने सेरा मठ की स्थापना 1419 में की इसके दो भाग हैं - सेरा जे तथा सेरा मे ।
ग्यालावा गेन्-डुम् ड्रुप, प्रथम दलाई लामा ने टशी लुम्-पो मठ
की स्थापना शिंगत्से में 1447 में की – यह पंछेन लामाओं का पीठ बन गया । इस मठ के
भिक्षु आमतौर पर सूत्र-देशनाओं का अध्ययन करते थे, जबकि मंत्र देशनाओं की साधना
मुख्यतः अन्य दो मठों में हुआ करती थी । यानी कि जे शेरब सेन् गे में स्थापित
ग्युमे मठ - निम्न तांत्रिक मठ 1440 में ग्युचेन कुंगा ने 1474 में स्थापित
ग्युतोद, उच्च तांत्रिक मठ ।
गेलुग सम्प्रदाय के प्रमुख सिद्धांतों में निम्नलिखित बातें
समाविष्ट हैं- बोधि-मार्ग की अवस्थाएँ (लाम्-रिम्) जो महान् भारतीय आचार्य अतिश
(11वीं शती) की देशना पर आधारित हैं, सूत्र तथा तंत्र की साधनाओं का मेल इस
सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र है, जिससे कि परमानंद तथा शून्यता की अनुभूति हो ।
इस संप्रदाय के भिक्षु पाँच प्रमुख शास्त्रों का अध्ययन करते
हैः अभिधर्मकोश, प्रातिमोक्षसूत्र, प्रमाणवार्तिक, अभिसमयालंकारप्रज्ञापारमिता,
तथा मध्यमकावतार ।
प्राध्यापक -वृंद:-
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Ven. Lobsang Gyaltsen |
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Ven. Thubten Lekshey |
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Ven. Lobsang Tsultrim |
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Ven. Ngawang Tenphl |
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कर्ग्युद सम्प्रदाय विभाग
कर्ग्युद सम्प्रदाय की स्थापना 1967 में, नारोपा तथा मैत्री-पा इन दो महान्
भारतीय सिद्धों की मूल्यवान् परंपरा को जीवित रखने तथा उसका प्रसार करने के
उद्देश्य से हुई ।
इतिहास
तिब्बती बौद्ध धर्म के कर्ग्यु पा सम्प्रदाय की शुरुआत दो
अलग-अलग स्रोतों से हुई । मार-पा लोत्सावा (1012-1095) तथा ख्युङ्पो न्यालजोर
(978-1079) । मार्-पा लोत्सावा पूर्ववर्ती परम्परा के संस्थापक थे । उन्होंने
ड्रोमी येशी के मार्गदर्शन में अध्ययन किया तथा अनुवाद का प्रशिक्षण लिया । बाद
में तीन बार उन्होंने भारत की यात्रा की और चार बार नेपाल की सच्ची देशनाओं की
खोज करने के लिए । कई भारतीय आचार्यों के मार्गदर्शन में उन्होंने अध्ययन किया,
लेकिन मुख्यतः महान् सिद्ध आचार्य नारो-पा तथा मैत्री-पा के मार्गदर्शन में । मार्-पा
ने आभास-रूप शरीर, चेतना-संक्रमण, स्वप्न, स्वच्छ प्रकाश तथा भीतरी उष्णता की
तांत्रिक देशनाओं की परंपरा सीधे नारोपा (1016-1100) से ग्रहण की थी । स्वयं
नारोपा ने भी इन देशनाओं को अपने गुरु तिलो पा (988-1069) से सीधे ग्रहण किया था
। तिलो-पा ने इसको बुद्ध वज्रधर से सीधे ग्रहण किया था । इन महान् देशनाओं को मार-पा
तिब्बत ले आये और बाद में अपने सर्वश्रेष्ठ शिष्य मिलारे-पा (1040-1123) को
संक्रमित की । मिलारे-पा वह एकमेव योगी महात्मा थे जिन्होंने अपने जीवन-काल में
ही गोपनीय मंत्रयान पद्धति की साधना कर बोधि प्राप्त की ।
मार्-पा की ध्यान-परम्परा को आगे चलानेवाले एक महात्मा थे
मिलारे-पा और ङाग चोकु दोर्जे, छुंरतन वान्गे, मेटोन चेन्पो आदि अन्य लोगों ने
मार्-पा की देशना-परम्पराओं को आगे बढ़ाया । इस तरह दार्शनिक ध्यान प्रशिक्षणों
की दोहरी व्यवस्था की स्थापना कर्ग्युद सम्प्रदाय में स्थापित हुई । महान् गुरु
ग्याम्-पो-पा (1084-1161) तथा रेचुङ्-पा (1084-1161) ये दोनों मिलारे-पा के
प्रसिद्ध शिष्य थे । ग्याम्-पो-पा ने मिलारे-पा से नारो-पा के छः योगों की
महा-मुद्रा देशनाओं को ग्रहण किया और उन्हें एक ही परम्परा में सन्निहित कर दिया
। यह परम्परा डाक्-पो कग्युद, कग्युद परम्परा की मातृ-परम्परा नाम से प्रसिद्ध
हुई । कग्युद परम्परा के दो मूल रूपों में से एक शङ्-पा कग्युद की स्थापना ख्युङ्-पो
न्याल जोर (978-1079) ने की । वे नेपाल गये, जहाँ पर उनकी भेंट आचार्य सुमति से
हुई । उनसे उन्होंने ग्रंथों के अनुवाद का प्रशिक्षण लिया और बाद में भारत की
यात्रा की । सौ से भी अधिक भारतीय पंडितों से मिलने तथा उनसे विभिन्न दार्शनिक और
गुप्त मंत्र-देशनाओं को ग्रहण करने के बाद उन्होंने समग्र सुगम तथा दुर्गम
सिद्धांतों पर प्रभुत्व प्राप्त किया । सुखसिद्ध, राहुलगुप्त तथा निगुमा, नारो-पा
की संगिनी, को उनके मुख्य आचार्य समझा जाता है । आगे चलकर यह परम्परा शाङ्-पा
कग्युद परम्परा नाम से प्रसिद्ध हुई । डाग्-पो कग्युद पंरपरा की अपनी 12 शाखाएँ
है । उसके चार मुख्य सम्प्रदाय और 8 उप-सम्प्रदाय है । इस मत का मूलभूत सिद्धांत
है महामुद्रा तथा नारो-पा की छः प्रमुख देशनाओं की साधना । इन चार सम्प्रदायों
में से कमछ़ङ् कग्युद को प्रथम कर्मा-पा दुसुम ख्येन् पा ने स्थापित किया । बारोम्
दर्मा वाङ् चुक ने दूसरे बारोम कग्युद की स्थापना की । झाङ् छ़ाल्-पा छ़ोन् द्रु
ड्राक्-पा ने तीसरे की स्थापना की और छ़ाल्-पा कग्युद तथा फाग्-मो द्रुपा ने चौथे
फग्द्रु कग्युद की स्थापना की ।
आठ लघु कग्युद सम्प्रदाय हैं – ड्रिकुङ् कग्युद, जिसकी स्थापना
द्रिगुङ् क्योन्-पा जिग्तेन् सुमगोन ने की, टक् लुंग कग्युद की स्थापना तग् लुंग
थङ्-पा टशी पास्ला ने की; थ्रोफु कग्युद को ग्यास त्शा और कुंदेन् रेपा ने
स्थापित किया; ड्रुक्-पा कग्युद की स्थापना लिंगरे पेमा दोर्जे तथा छाङ्-पा ग्यारे
येशे दोर्जे ने की; मार्-छ़ंङ् कग्युद की स्थापना मार्-पा ड्रुब्थोब् शेरब सेंगे
ने की, येल्-पा कग्युद को ड्रुब्-थोब येशे छ़ेग्-पा ने स्थापित किया, यझङ् कग्युद
शरवा काल्डेन येशे सेंगे ने स्थापित किया, तथा शुग्-सेब् कग्यु की स्थापना
ग्येरगोम् चेन्-पो ने की । इन विभिन्न उप-सम्प्रदायों की निर्मिति मूलभूत देशनाओं
की ओर देखने के व्यक्तिगत दृष्टिकोणों में होनेवाले भेद के आधार पर हुई है ।
महामुद्रा नामक कग्युद परम्परा के अनन्य साधारण पहलू को सूत्र तथा तंत्र दोनों के
अर्थनिर्णय के अनुसार स्पष्ट किया जा सकता है । देशनाओं के इन दोनों पहलूओं का
उद्देश्य है - मन के वास्तविक स्वरूप को, स्वच्छ प्रकाश का, साक्षात् बोध ।
प्राध्यापक -वृंद:-
Name |
: |
Dr.Tashi Samphel |
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: |
Assistant Professor in Senior Scale (HOD) |
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Ven. Sonam Gyatso |
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Professor |
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Acharya Lobsang Thokmed |
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Assistant Professor |
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Dr. Ramesh Chandra Negi |
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Assistant Professor / Chief Editor, Dictionary Unit |
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